आहड़ सभ्यता (Ahar Civilization)
आहड़ सभ्यता राजस्थान की एक अत्यंत महत्वपूर्ण और समृद्ध ताम्रपाषाण कालीन (Chalcolithic) ग्रामीण संस्कृति है। यह सभ्यता दक्षिण-पूर्वी राजस्थान के मेवाड़ क्षेत्र में विकसित हुई थी।
1. सामान्य परिचय
स्थान: उदयपुर जिले में आयड़ (बेड़च) नदी के किनारे।
खोजकर्ता: अक्षय कीर्ति व्यास (1953)।
उत्खनन: रतन चन्द्र अग्रवाल (1956) और बाद में एच.डी. सांकलिया (1961-62) के नेतृत्व में।
प्राचीन नाम: ताम्रवती नगरी (ताँबे के औजारों की प्रचुरता के कारण)।
स्थानीय नाम: धूलकोट (रेत का टीला)।
साहित्यिक नाम: आघाटपुर।
2. कालक्रम (Timeline)
विभिन्न इतिहासकारों और रेडियो कार्बन डेटिंग (C^{14}) पद्धति के अनुसार, इस सभ्यता का समय 2000 ई.पू. से 1200 ई.पू. के मध्य माना जाता है। यह सिंधु घाटी सभ्यता के समकालीन और उसके बाद भी अस्तित्व में रही।
3. प्रमुख विशेषताएँ
क. आवास निर्माण
यहाँ के लोग पत्थरों और धूप में सुखाई गई मिट्टी की ईंटों से घर बनाते थे।
घरों की नींव में स्फटिक पत्थरों का प्रयोग किया जाता था।
एक घर में कई चूल्हे मिले हैं, जो संयुक्त परिवार प्रणाली की ओर संकेत करते हैं।
ख. मृदभांड (Pottery)
आहड़ के लोग 'लाल और काले' (Red and Black Ware) मृदभांडों का प्रयोग करते थे।
इन बर्तनों को "उल्टी तपाइ" (Reverse Firing) विधि से पकाया जाता था।
अनाज रखने के बड़े मृदभांड मिले हैं जिन्हें स्थानीय भाषा में 'गोरे' या 'कोट' कहा जाता है।
ग. अर्थव्यवस्था एवं व्यवसाय
कृषि: यहाँ के लोग गेहूँ, जौ और चावल की खेती करते थे।
पशुपालन: गाय, बैल, भेड़ और बकरी पालन मुख्य व्यवसाय था।
धातु कर्म: ताँबा गलाना यहाँ का मुख्य उद्योग था। उत्खनन में ताँबा गलाने की भट्टियाँ और ताँबे की कुल्हाड़ियाँ मिली हैं।
घ. धार्मिक एवं सांस्कृतिक जीवन
मिट्टी से बनी बैल की आकृति मिली है जिसे 'बनासियन बुल' (Banasian Bull) कहा गया है।
यहाँ से बिना हत्थे के जलपात्र मिले हैं, जो ईरान और पश्चिमी एशिया की सभ्यताओं से संबंधों को दर्शाते हैं।
एक मुहर मिली है जिस पर यूनानी देवता 'अपोलो' का चित्र और तीर-तरकश अंकित है।
4. प्रमुख अवशेष
ताँबे की 6 मुद्राएँ और 3 मुहरें।
सिल-बट्टा और चक्की के अवशेष।
नाप-तौल के बाट।
टेराकोटा की मूर्तियाँ।
5. पतन के कारण
इतिहासकारों का मानना है कि आयड़ नदी के मार्ग परिवर्तन या अत्यधिक बाढ़ के कारण यह सभ्यता नष्ट हुई होगी।
निष्कर्ष: आहड़ सभ्यता न केवल राजस्थान बल्कि भारतीय उपमहाद्वीप की ताम्रयुगीन संस्कृतियों में अपनी विशिष्ट पहचान रखती है। यह ग्रामीण कृषि और धातु विज्ञान के समन्वय का बेहतरीन उदाहरण है।